Sun is life
2 min readMay 17, 2020

कुछ नहीं बदल सके हम

आंठवी कक्षा का हिन्दी का वायवा था। क्लासमेट छोटी कविता तैयार कर रहे थे। याद भी करनी थी और भावार्थ भी करना था। कई मेरे पास आये कि मैं उन्हे भावार्थ बता दूँ और सभी ने ‘पुष्प की अभिलाषा’ का चयन किया था। मैंने भी उसी का चयन किया था। पर मुझे लगा कि कुछ अलग करना चाहिये और मैं किताब के पन्ने पलटने लगी। मैंने नई कविता को चुना, क्यूंकि इस कविता ने मुझे भावुक कर दिया था, वो ऐसी कविता नहीं थी जिस पर कोई ध्यान दे रहा था और उसमें जिस समाज के महत्वपूर्ण वर्ग की बात थी, उसकी भी वही हालात थी। सदियो से न बदलने वाली जिंदगी की बात थी, और भी बहुत कुछ था। दुःख की बात है कि आज भी स्थिति जस की तस है । जब मैंने उस कविता को परीक्षा में सुनाया तो उस पर ध्यान नहीं दिया गया। हम न सोचना चाहते है, न सुनना और न ही कुछ करना।

खुद ही पढ़े, और सोचें कि हम सब विफल क्यूं हो गये। कुछ हमें करना होगा।

मैं मजदुर मुझे देवों की बस्ती से क्या?

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*मैं मजदुर मुझे देवों की बस्ती से क्या!

*अगणित बार धरा पर मैंने स्वर्ग बनाये,

*अम्बर पर जितने तारे उतने वर्षों से, मेरे पुरखों ने धरती का रूप सवारा;*

*धरती को सुन्दर करने की ममता में, बिता चुका है कई पीढियां वंश हमारा.

*अपने नहीं अभाव मिटा पाए जीवन भर, पर औरों के सभी अभाव मिटा सकता हूँ;

*युगों-युगों से इन झोपडियों में रहकर भी, औरों के हित लगा हुआ हूँ महल सजाने.

*ऐसे ही मेरे कितने साथी भूखे रह,लगे हुए हैं औरों के हित अन्न उगाने;

*इतना समय नहीं मुझको जीवन में मिलता, अपनी खातिर सुख के कुछ सामान जुटा लूँ*

*पर मेरे हित उनका भी कर्तव्य नहीं क्या? मेरी बाहें जिनके भरती रहीं खजाने;

*अपने घर के अन्धकार की मुझे न चिंता, मैंने तो औरों के बुझते दीप जलाये.

*मैं मजदुर मुझे देवों की बस्ती से क्या?

*अगणित बार धरा पर मैंने स्वर्ग बनाये.

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